Surya
हस्ती-इ-गुलिस्ताएं जहाँ कुछ भी नहीं...
चहकती हैं बुलबुलें जहाँ गुल का निशां कुछ भी नहीं...
कल तक जिनके महलों में हजारों झांड़ और फानूश थे...
पेड़ ही उनकी कब्र पर, बाकी निशा कुछ भी नहीं...

हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़ को सवार दूं...
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार लूं...
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को पुकार लूं
हो सका न कुछ मगर शाम बन गयी सहर..
वह उठी लहर कि बह गए किले बिखर बिखर...
कारवां गुज़र गया...गुबार देखते रहे...

ये जो मेरे शहर में रोशनी लायें होंगे....
इन चिरागों ने ना जाने कितने घर जलाये होंगे...
हाथ उनके भी यकीनन हुए होंगे जख्मी...
जिसने मेरी राह में कांटें बिछाये होंगे..

बरस ए अब्र जितना चाहे तू..
कि अब तेरी बारी है....
कभी दिल था तो हम भी...
रो रो के दरिया बहाया करते थे...

ये शेर हमारे मित्र रणधीर सिंह ने दी हैं...आशा है आप लोगों को पसंद आएँगी...
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