Surya




जब नाव जल में छोड़ दी

तूफ़ान में ही मोड़ दी

दे दी चुनौती सिंधु को

फिर धार क्या मँझधार क्या।।


कह मृत्यु को वरदान ही

मरना लिया जब ठान ही

जब आ गए रणभूमि में

फिर जीत क्या फिर हार क्या।।


जब छोड़ दी सुख की कामना

आरंभ कर दी साधना

संघर्ष पथ पर बढ़ चले

फिर फूल क्या अंगार क्या।।


संसार का पी पी गरल

जब कर लिया मन को सरल

भगवान शंकर हो गए

फिर राख क्या श्रृंगार क्या ।।

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स्व हरिवंशराय बच्चन जी द्वारा रचित

Surya



कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था
भावना के हाथ ने जिसमें वितानों को तना था
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर, कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

बादलों के अश्रु से धोया गया नभ-नील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम
प्रथम ऊषा की किरण की लालिमा-सी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनों हथेली
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई
आँख से मस्ती झपकती, बात से मस्ती टपकती
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार, माना
पर अथिरता पर समय की मुसकराना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिनमें राग जागा
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा
एक अंतर से ध्वनित हों दूसरे में जो निरंतर
भर दिया अंबर-अवनि को मत्तता के गीत गा-गा
अंत उनका हो गया तो मन बहलने के लिए ही
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

हाय, वे साथी कि चुंबक लौह-से जो पास आए
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है

क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका
किंतु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ||

है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है
- हरिवंश राय बच्चन 
Surya



वक़्त का ये परिंदा रुका है कहाँ
मैं था पागल जो इसको बुलाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा |


लौटता था मैं जब पाठशाला से घर
अपने हाथों से खाना खिलती थी माँ
रात में अपनी ममता के आँचल तले
थपकीयाँ देके मुझको सुलाती थी माँ ||

सोच के दिल में एक टीस उठती रही
रात भर दर्द मुझको जागता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा ||

सबकी आँखों में आँसू छलक आए थे
जब रवाना हुआ था शहर के लिए
कुछ ने माँगी दुआएँ की मैं खुश रहूं
कुछ ने मंदिर में जाके जलाए दिए ||

एक दिन मैं बनूंगा बड़ा आदमी
ये तसव्वुर उन्हें गुदगुदाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा ||


माँ ये लिखती हर बार खत में मुझे
लौट आ मेरे बेटे तुझे है क़सम
तू गया जबसे परदेस बेचैन हूँ
नींद आती नहीं भूख लगती है कम ||

कितना चाहा ना रोऊँ मगर क्या करूँ
खत मेरी माँ का मुझको रुलाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा ||


--जसवंत सिंह