सिगरेट
बूढ़ा ज़्यादा देर एक जगह बैठने का आदी नहीं था। थोड़ी देर टहलने के बाद वह पत्थर की बेंच पर बैठा लेकिन जल्दी ही उठ गया। लोग टहलते हुए आ-जा रहे थे। बूढ़ा भी टहलने लगा।
टहलते-टहलते उसका हाथ जेब में चला गया और माचिस की डिब्बी उंगलियों में फंसी बाहर आ गयी। वह डिब्बी को ध्यान से देखने लगा, जैसे पहली बार देख रहा हो। कितना पुराना साथ था इस माचिस का और उसका। दोनों बचपन के साथी थे। यह पार्क उनका तीसरा साथी था।
लेकिन वे सिर्फ तीन ही नहीं थे। कुल मिलाकर पाँच थे। वह बूढ़ा, यह माचिस,यह पार्क, बूढ़े का दोस्त और सिगरेट की पैकेट। दोस्त की याद आते ही बूढ़े का मन भारी सा होने लगा। उसने दूसरी जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा ली।
उसे याद आया, जब वह दसवीं में था तो उसने इसी पार्क से सिगरेट पीनी शुरू की थी। दोस्त ने सिखाया था। वह और दोस्त अपने घर से सुबह टहलने के लिए निकलते। पार्क में आकर थोड़ी देर खूबसूरत लड़कियों को देखते, फिर किसी सुरक्षित कोने में एक पौधे और झाड़ी की आड़ लेकर सिगरेट की पैकेट निकालते।
’’अरे, माचिस तो मैं घर पर ही भूल आया।’’ कभी - कभी ऐसा भी होता।
’’मैं लाया हूं माचिस।’’ वह मुस्कुरा कर कहता।
फिर दोस्त एक सिगरेट निकलता। उसे परिपक्व सिगरेटबाज़ की तरह पैकेट पर धीरे- धीरे ठोंकता, फिर आहिस्ते से अपने होंठों में दबाता और दीवार की टेक लगा लेता। वह माचिस जलाता और दोनों हथेलियों से तीली की लौ को बुझने से बचाते हुए दोस्त की सिगरेट को माचिस दिखाता। दोस्त सिगरेट के कश खींचता और धुंए के छल्ले बनाने की कोशिश करता। दोस्त ने बहुत कोशिश की, लेकिन उसकी तरह छल्ले बनाना कभी नहीं सीख पाया।
दोस्त दो महीने पहले अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहा था। वह चौबीसों घण्टे दोस्त के साथ रहता था, सबके मना करने के बावजूद।
जिस दिन दोस्त मरा, उस दिन सुबह से ही वह बहुत मुखर दिख रहा था। उसका बेटा अस्पताल के स्नानागार मे मंजन और स्नान वगैरह कर रहा था और बहू खाना लाने के लिए घर गयी थी। दोस्त की हालत वाकई सीरियस थी। डॉक्टरों ने डेडलाइन दे दी थी....... बस कुछ घण्टे या कुछ दिन। वह उसका हाथ पकड़ कर उसका माथा सहला रहा था कि दोस्त ने आँखें खोलीं।
’’ लगता है विदाई का समय आ गया।’’ दोस्त एक मुर्दा हँसी हँसा।
’’ नहीं, डॉक्टर ने कहा है कि एक और टेस्ट के बाद ही कुछ........।’’ उसने झूठ बोलने की कोशिश की और पकडा गया।
’’यार तू तो कम से कम सही बोल।’’
’’यार तू तो.....।’’ उसकी आँखें भर आयीं।
’’मुझे जाने का ग़म नहीं है यार। अधिकतर ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर चुका हूँ। बस दो ग़म हैं। एक तो यह कि तेरी तरह छल्ले बनाना नहीं सीख पाया और दूसरा यह कि........।’’ दोस्त रुक गया।
’’दूसरा क्या..........?’’ उसने ज़ोर दिया।
’’दूसरा यह साले कि तुझसे पहले नहीं मरना था। तुझे मार कर मरना था कमीने।’’ दोस्त हंस रहा था।
वह भी निराशा के बादलों से थोड़ा बाहर निकल आया।
’’ अबे जा साले, चार दिन का मेहमान है तू। मैं अभी कई साल जीने वाला हूं।’’ उसने दोस्त के हाथों को सहलाते, हंसते हुये कहा।
’’ देख लेना बुड्ढे, मरने के तीन महीने के अंदर तुझे भी न बुला लिया तो कहना।’’ दोनों हँसे और खूब हँसे। सारी बोझिलता हँसी की आँच में कपूर की तरह उड़ गयी।
दोनों बूढ़ों की बातें एक नर्स ने सुन ली। इतनी वीभत्स बातें, वह भी एक मृतप्राय मरीज़ से? वह बूढ़े को अजीब सी नज़रों से देखने लगी।
जब वह बाहर चली गयी तो दोस्त ने अपने दोनों पोतों को पास बुला कर पैसे देते हुये कहा,
’’ जाओ बेटे, बाहर से जलेबी खा आओ।’’
’’दादाजी, मैं जलेबी नहीं खाऊंगा, कॉमिक्स खरीदूँगा।’’ बड़ा पोता मचला।
’’ ठीक है, ये ले और पैसे , जा।’’
दोनों उछलते कूदते बाहर चले गये।
’’यार एक चीज़ माँगूँ, देगा ?’’
’’ जान माँग ले।’’ बूढ़े ने कहा।
’’ एक जला ना।’’ दोस्त ने विनती की।
’’ साले, पागल हो गया है? इस हालत में सिगरेट तुझे बहुत नुकसान करेगी।’’ उसने झिड़कते हुये मना किया।
’’ अब क्या फ़ायदा क्या नुकसान........। बस एक आख़िरी बार पी लूँ तेरे साथ........... फिर पता नहीं..........।’’
बूढ़े ने दोस्त का मुँह हथेली से बंद करके आगे के शब्दों को रोक दिया। दौड़ कर उस प्राइवेट वार्ड का दरवाज़ा बंद किया और आकर दोस्त के पास बैठ गया। दोस्त उठने लायक नहीं था, लेकिन ख़ुद से उठकर पलंग के सिरहाने की टेक लेकर बैठा था। बूढ़े ने पैकेट निकाली तो दोस्त ने पैकेट झपट ली और उसमें से एक सिगरेट निकाल ली। फिर धीरे-धीरे पैकेट पर ठोंका और होंठों के बीच दबा लिया। बूढ़े ने भारी मन से माचिस जलायी और हथेलियों के बीच से सिगरेट को लौ दिखायी।
दोस्त धीरे-धीरे कश लेने लगा। बूढ़ा भी दोस्त के शांत चेहरे को देख कर संतुष्ट था। दोनों ने हमेशा की तरह एक ही सिगरेट से बारी-बारी कश लिया।
’’हम कितना कुछ करना चाहते हैं पर नहीं कर पाते। सोचा था रिटायरमेंट के बाद कुछ अपनी मर्ज़ी का करेंगे। हम दोनों ने सारी ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर दीं, फिर भी जीवन के अंतिम दिनों में हिल स्टेशन जाकर बसने और भाग-दौड़ से दूर ज़िंदगी बिताने का सपना तो सपना ही रह गया। कमबख्त ज़िंदगी ने वक़्त ही नहीं दिया। अपने पीछे भगाती रही, भागती रही.........।’’ दोस्त कश लगाते हुये खो सा गया था।
’’ कोई बात नहीं यार, हमारी ज़िंदगी अब हमारे बादवाली पीढ़ीयां ली रही हैं। हमारी निश्चिंतताएँ, हमारे सपने अब उनकी आंखों में हैं।’’ बूढ़े ने दोस्त की हथेली दबाते हुये कहा।
’’ कहां.......? अब तो सब कुछ बदल गया है दोस्त। हवा बदल गयी है। अपने तरीके से, अपनी शर्तों पर कोई ज़िंदगी नहीं जी पाता। ज़िम्मेदारियां सारी निभा दीं पर अपने ख़ुद के लिये सोचा कुछ नहीं कर पाया।’’
’’ हमने कोशिश तो की यार अपने तरीके से ज़िंदगी जीने की, ये क्या कम बात है ?’’ बूढ़ा बोला।
’’ज़िंदगी जीना तो छोड़, मैं तो तेरी तरह छल्ले बनाना भी नहीं सीख पाया।’’ दोस्त ने होंठ गोल करके धुआँ छोड़ा।
’’ चल कोई बात नहीं, मैं तेरे पीछे-पीछे आ रहा हूँ। वहीं सिखा दूँगा।’’ उसने कहा।
दोस्त के साथ यह उसकी आख़िरी सिगरेट थी। उस दिन जब दोस्त ने आँखें मूंदी तो हर मित्र और रिश्तेदार की ज़बान पर एक ही वाक्य था, ’’ आख़िर हर ज़िम्मेदारी निभा गये।’’
’’ हाँ, सबको पार लगा दिया।’’
’’ जो-जो करना चाहते थे कर के ही रहे।’’
’’ नहीं, छल्ले बनाना नहीं सीख पाया। बहुत चाहकर भी नहीं.........।’’ बूढ़ा बुदबुदाया। लेकिन किसी ने सुना नहीं, ख़ुद बूढ़े के अलावा।
उस दिन से रोज़ सुबह पार्क में टहलने जानेवाला दशकों पुराना क्रम टूट गया। दो महीनों में आज वह पहली बार आया था। बूढ़े के दोनों बेटे मॉण्ट्रियल में, बेटी मुंबई में और बीवी आसमान में थी। कभी-कभी बेटों की ई-मेल, बेटी का फोन और बीवी की याद आकर उसे उदास करने की कोशिश करते लेकिन वह तटस्थ रहने की पूरी कोशिश करता। जीवन का खेल इस अवस्था में काफी कुछ समझ में आ ही जाता है। सब आना-जाना है। बेटे-बेटी ख़ुश रहें, अपनी ज़िंदगी जियें, ज़्यादा लगाव घातक है। कोई कितना भी प्रिय हो, कभी भी छोड़ कर जा सकता है। यही जीवन है।
जब पत्नी की मौत हुयी थी तो बूढ़ दोस्त के पास बैठ कर बहुत रोया था, लेकिन जब दोस्त की मौत हुयी तो बिल्कुल नहीं रोया। उसे लगता जैसे दोस्त फ़िल्म देखने हॉल में गया है। दोस्त हमेशा की तरह पहले पहुंच गया है, वह थोड़ा बाद में पहुंचेगा। इसमें रोना और दुख क्या करना। हां, याद आने पर कभी-कभी दिनचर्या सुस्त हो जाती है।
वह फिर पीछे की तरफ लौट पड़ा-सत्रह साल वाली उम्र में। जहां से उसने जीवन जीना शुरू किया था।
’’ इतनी देर कहां लगा दी। फ़िल्म शुरू हुये दस मिनट हो चुके हैं।’’ दोस्त थोड़ी सी भी देरी पर बहुत नाराज़ होता था।
’’ यार आज पापा ऑफ़िस ही नहीं गये, इसलिये कई बहाने मारने पड़े।’’ वह बताता।
पूरी फ़िल्म के दौरान जब वे दो पैकेट सिगरेट पी जाते तो दोस्त थोड़ा चिंतित दिखायी देता।
’’आजकल सिगरेट बहुत ज़्यादा हो जा रही है। कम करनी होगी।’’
’’ हाँ, मैं भी सोच रहा हूँ।’’ वह भी दोस्त का समर्थन करता।
फिर किसी दिन दोस्त फैसला सुनाता, ’’ मैं एक तारीख से सिगरेट छोड़ रहा हूँ, हमेशा के लिये।’’
’’एक से ही क्यों ?’’ एक बार उसने पूछा था।
’’ताकि सीधा-सीधा हिसाब याद रहे कि सिगरेट छोड़े कितने दिन हुये।’’
’’जब हमेशा के लिये छोड़ रहा है तो जानने की क्या ज़रूरत.........?’’
फिर दोस्त तीस या इकतीस तारीख को रोज़ से दुगुनी सिगरेटें पीता और उसे भी पिलाता। इस वजह के साथ कि कल से सिगरेट एकदम से छोड़ देनी है। सिगरेट पीना सिखाने में दोस्त उसका गुरू था लेकिन दोस्त छल्ले नहीं बना पता था और इस मामले में वह दोस्त का गुरू था।
दोनों महीने के अंतिम दिन ख़ूब सिगरेटें पीते और नये महीने की शुरूआत बिना सिगरेट के करते। फिर दोनों तीन से चार और चार से पांच तारीख़ तक अपना वादा निभाते। छह-सात तारीख आते ही दोनों एक दूसरे का मुंह देखने लगते कि कोई कुछ कहे। कोई बोलता- कभी वह, कभी दोस्त।
’’कल रात से ही सिर बड़ा दर्द हो रहा है।’’
’’हां, मुझे भी हल्का सिरदर्द है। कुछ दिनों से पेट भी साफ नहीं हो रहा है।’’
’’शायद हमने अचानक छोड़ दी इसीलिये............।’’
’’ चलो धीरे-धीरे कम करते हुये छोड़ते हैं।’’
फिर दोनों धीरे-धीरे कम करने का प्रयास करते। कुछ दिनों तक कम होने का यह क्रम चलता, फिर वही पुराना ढर्रा। मगर अगली तीस या इकतीस को कोई न कोई एक नया प्रण ज़रूर करता।
’’इस महीने से एक दिन में बस दो सिगरेट।’’
’’डन।’’
’’डन।’’
यह ’डन’ तब तक निभता जब तक वे कोई फ़िल्म देखने नहीं जाते। जिस दिन हॉल में घुसते, पैकैटें ख़त्म हो जातीं।
बूढ़े ने अपनी मर्ज़ी से भी सिगरेट छोड़ी, ह्दय को स्वस्थ रखने के लिये। जब सीने में दर्द होता और डॉक्टर सिगरेट पीने को मना करता। बूढ़ा एक हफ़्ते तक सिगरेट नहीं पीता, फिर जैसे ही दर्द होता, पैकेट हाथ में आ जाती। इस बार, पिछले हफ़्ते बूढ़े को डॉक्टर ने चेताया था कि सिगरेट छोड़ दीजीये वरना ज़्यादा दिन नहीं जी पाएंगे। बूढ़ा आंखों में मुस्कराया था। एक दिन के लिये भी नहीं छोड़ी इस बार।
सब कुछ कितनी जल्दी होता चला गया। आज सोचने पर बूढ़े को विश्वास नहीं होता कि सिगरेट शुरू किये पचास-पचपन साल हो गये। कब स्कूल, कॉलेज, नौकरी, शादी, बीवी, बच्चे, रिटायरमेण्ट एक के बाद एक परिवर्तन आते गये। नये-नये अनुभव मिलते गये। दोस्त हर अनुभव में साथ रहा। सिगरेट भी हर अनुभव में साथ रही। दोस्त अकेला छोड़ गया............एक उदास अनुभव के साथ, एक सिहरन के साथ। सिगरेट ने अकेला नहीं छोड़ा। अब भी साथ है। शायद यह शरीर के साथ ही साथ छोड़ती हो।
उसने सिगरेट का एक लम्बा कश लिया और आधी बची सिगरेट झाड़ियों में फेंक दी। अकेले उसे सिगरेट पीने की आदत नहीं। एक सिगरेट एक बार में पूरी नहीं पी पाता, भले ही तुरंत अगली जला लेता है। दो महीने से प्रयास कर रहा है कि अकेला पीना सीख ले पर पचास साल पुरानी आदत दो महीने में कैसे बदले। आधी पीने के बाद आधी, जो कि दोस्त का हिस्सा है, नहीं पी जाती, फेंक देनी पड़ती है।
पार्क में टहलते लोग बूढ़े को अजीब नज़रों से देखते हैं। सुबह की ताज़ी हवा लेने के बजाय यह बूढ़ा सिगरेट पी रहा है, वह भी श्रृंखलाबद्ध...........लगातार। बूढ़ा यादों में खोया चलता रहता है।
कभी-कभी उसे लगता है कि वह बूढ़ा नहीं है-सत्रह साल का लड़का है। दसवीं का छात्र। दोस्त के साथ पार्क में घूमता हुआ। बतियाता हुआ।
’’शादी के बाद अगर तेरी बीवी ने मना किया तो तू सिगरेट छोड़ देगा?’’ उसने कश मारते हुये दोस्त से पूछा था।
’’यार पद्मा से मेरी शादी हो जाय बस्स्स्स............वह कहेगी सारी दुनिया छोड़ दूंगा।’’
’’ऐसा क्या है उसमें...............?’’
’’मेरी नज़र से देख, क्या होंठ हैं, गुलाब की पंखड़ियां, आंखें जैसे नीले मोती और फ़िगर..............परी है परी। आइ लव हर।’’ दोस्त खोने लगा था।
’’और पद्मा से तेरी शादी न हो पायी तो........?’’
’’तो ज़िंदगी में कभी शादी नहीं करूँगा और न ही पद्मा को करने दूँगा। आख़िर हमने साथ जीने मरने की कसमें खायी हैं।’’ दोस्त अटल इरादे से बोला था।
लेकिन दोस्त की शादी पद्मा से नहीं हुयी और दसवीं कक्षा का पवित्र प्रेम परवान नहीं चढ़ पाया। दोस्त पद्मा की शादी रोक भी नहीं पाया बल्कि अपने पिताजी के साथ जाकर शादी की दावत भी खा आया। उस रात दोस्त बहुत रोया था। उस रात उसने सिगरेट की अग्नि हाथ में लेकर कभी शादी न करने की कसम खायी थी। लेकिन बाद में दोस्त की शादी भी हुयी और प्यारे-प्यारे बच्चे भी हुये।
एक बार बूढ़ा, दोस्त के साथ अपनी बेटी से मिलकर आ रहा था, जो हॉस्टल में रह कर पढ़ती थी, कि दोस्त की परी स्टेशन पर मिल गयी। शादी के पंद्रह साल ही बीते थे और दोस्त की पद्मा बिल्कुल पहचान में नहीं आ रही थी। गुलाब की पंखड़ियों के उपर हल्के बाल उगे दिख रहे थे और नीले मोती, मोटे फ़्रेम के चश्मे में क़ैद हो गये थे। एक ज़माने में दोस्त को पागल कर देने वाला ’फ़िगर’ ऊपर से नीचे तक बराबर हो चुका था। उसका पति उससे भी बीस था।
पद्मा से मुलाक़ात के बाद दोस्त ख़ूब हँसा था। सिगरेट का धुआँ उड़ाते हुये उसने कहा था, ’’यार, वक़्त भी कैसा मसखरा है। हर चीज़ से ज़ाहिर करता है कि मुझसे शक्तिशाली कोई नहीं।’’
यादों में खोये-खोये बूढ़े ने सिगरेट जला ली थी और पार्क के गेट तक पहुंचने ही वाला था। उसके बांये हाथ में आज का अख़बार था और दाहिने हाथ में सिगरेट झूल रही थी। गेट के पास पहुंचते ही उसका मन हुआ कि वह उन झाड़ियों के पीछे झांके, जिसके पीछे उसने अपने दोस्त के साथ छल्ले बनाने की शुरूआत की थी।
झाड़ियां अब काफ़ी घनी हो गयी थीं। उस समय का पौधा अब मोटे तने वाला पेड़ बन चुका था। बूढ़े ने चलते-चलते ही अख़बारवाले हाथ से पेड़ पर लटकी लताओं को हटाया और अंदर झांका।
अंदर कुछ सुरसुराहट थी। सोलह-सत्रह साल के दो लड़के उन झाड़ियों और लताओं के पीछे बैठे सिगरेट पी रहे थे। एक गुरू की तरह आसमान की तरफ़ मुंह करके छल्ले बना रहा था और दूसरा चेले की तरह ध्यान से देखकर उसका अनुसरण कर रहा था। बूढ़े को देखकर वे घबरा गये। बूढ़ा मुस्करा उठा। उसे अचानक अपने भीतर ढेर सारा उल्लास अनुभव हुआ। आधी सिगरेट ख़त्म हो गयी थी। उसने सिगरेट को मुस्कराते हुये ज़मीन पर गिराया, पैरों से मसला और गेट की तरफ़ बढ़ गया।
--विमल चंद्र पाण्डेय
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