Surya
इक्कसवीं सदी का आदमी बूढ़ा होने से डरता है..

प्यार दुलार ममता लुटाई थी जिनपे,
उनके ही तिरस्कार से डरता है...

साख खोकर संतान का,
खुद अकेला होने से डरता है...

जिनको सिखाए,
मीठे बोल बोलना,
उन्हीं के कटु वाचों को सुनने से डरता है...

तिनका-तिनका जोड़कर,
बनाया था एक आशियाना,
अब खुद बेघर होने से डरता है...

कभी बनकर गुरु,
कभी दी शिक्षा कभी दिया ज्ञान,
कभी भुला दी खुद की ही पहचान,
आज उनसे ही सम्मान को सहेगने में डरता है...
ये व्यथा है उस प्रगतिवादी इंसान की,

जिसने कही आविष्कार देखे हैं,
लेकिन इस आधुनिक बुढ़ापे से वो डरता है...
वो मरना आसान समझता है लेकिन,
जिन्दा होते हुए,
ज़िंदगी के अपमान से डरता है...

--सरोज नेगी
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