Surya

दंगों पर एक किस्सा और सही

आतंकवाद के जमाने में दंगों के किस्से कौन पढ़ता है, फिर भी समाज की यह एक पुरानी विधा है, यह मान, एक किस्सा और सही .... वह दंगों का शहर था और उस शहर में फिर दंगा हो गया। दो मजहबों के पूजा स्थल पास-पास ही थे। वर्ष में एक बार ऐसा मौका आता कि दोनों धर्मों के उत्सव एक ही दिन आते। तब सार्वजनिक चौक के बंटवारे का प्रश्न आ खड़ा होता। सभी जानते थे कि दंगा होगा इसलिये गुपचुप कई महिनों पहले तैयारियाँ होनी शुरु हो जाती। इस बार भी जम कर दंगा हुआ। पत्थर, जलते टायर, चाकू, देशी कट्टे, ऐसीड बम, जलती मशाले इत्यादि का भरपूर उपयोग हुआ। जितने हुनरमंद थे सब संतुष्ट हुए। कहां मिलता है रोज-रोज ऐसा मौका? अब तो प्रशासन भी नकारा हो गया है। जरा सा कुछ हुआ नहीं कि कर्फ्यू लगा दिया। पुलिस भी कानून की उँगली थामने लगी तो वकील और पुलिस में क्या अंतर रहेगा? डंडे की दहशत का नाम ही तो पुलिस है।
दंगा ही वह पर्व है जिसे सभी लोग बिना किसी भेदभाव के मनाते हैं। सभी मजहबों का एक ही मकसद होता है दंगा। पिछले दंगों के किस्से, बाप दादाओं की शौर्य गाथाएं, हर गली हर नुक्कड़ का मुख्य व्यंजन होता है। कर्फ्यू अवधि खत्म होने पर घर लौटते हर व्यक्ति के मुँह में, आने वाले दिन के दंगा लक्ष्यों के चटकारे होते हैं। सभी घर लौटने की जल्दी में होते हैं। घर पर खवातीन भी बेसब्री से दूध ब्रेड और अफवाहों का इंतजार कर रही होती हैं।

खाली हवा में बातें करने से किस्सा आगे नहीं बढ़ता। किस्से के प्रवाह के लिये पात्रों का होना निहायत ही ज़रूरी होता है। आइये इस शहर के दो बाशिन्दे को लेकर किस्सा आगे बढ़ाते है। गुलमोहर बी और ब्रह्मभट्ट। गुल और ब्रह्म।

पहली बार ब्रह्म ने गुल को शहर के चैराहे के पास धुंए से भरी एक गली में देखा था। एक लाश के पास बैठ विलाप करती हुई। तार-तार बुर्का, आंसू गालों पर जमे हुए। ब्रह्म ने एक उड़ती सी निगाह से उधर देखा और आगे बढ़ चला। वह भी अपने भाई की लाश फूंक कर घर जा रहा था ।

घुटे हुए सिर लिये लोगों को देखते ही अचानक गुल उठी और उनकी और दौड़ पड़ी ''अरे हत्यारों क्या बिगाड़ा था मेरे कलेजे के टुकड़े ने तुम्हारा .......... हमारा घर जलाया ....दूकानें जलाई ......मेरे सरताज को मार दिया ......और अब मेरे ...मेरे लाल को भी मार दिया..........। वह रोती जा रही थी और उन लागों को कोसती जा रही थी। साथ ही एक विशेष आवाज के साथ सांस भी ले रही थी। कुल-मिलाकर उसके गले से जो विभत्स आवाज निकल रही थी, वह शहर के वर्तमान हालात की प्रतिध्वनी थी। गुल का विलाप जारी था। ...''मुझे क्यूं छोड़ दिया मुझे भी मार डालो .....अरे इतने पाप किये है ..एक तो पुण्य करलो ..एक तो पुण्य करलो, मुझे भी मार डालो ....'' इन अंतिम शब्दों को दोहराती ठठ्ठा मार कर हँस पड़ी। इसी बीच दो पुलिस वाले आये, उसके जवान बेटे की लाश को गाड़ी में रखा और गुल को भी घसीट कर गाड़ी में लाद दिया ।

इस पूरे प्रकरण से ब्रह्म के मन में एक नफरत की लहर सी उठी। पुलिस वाले ना आते तो वह दौड़ कर उस औरत का टेंटूआ ही दबा देता। उसे घुटन सी महसूस हुई। वमन करने को मन हुआ उसने अपनी अंतस की घृणा को इकट्टा किया और फुटपाथ पर थूक दिया।

दूसरी बार गुल से उसका सामना तब हुआ जब वो अपने संकल्प को क्रियान्वीत करने जा रहा था । हाथ में पेट्रोल से भरा बल्ब, साथ में लटकती सूतली । .... यही वह सामान था जिसने इंसान की शिराओ में बारुद भर दिया था। हाथ में नफरत की दियासलाई लिये कही भी कभी भी फट पड़ने को तत्पर। स्वार्थ सिंचित धर्म वृक्ष, नफरत फल ही देता है।

यह फल सभी जाति समुदाय के संकुचित सोच सदस्यों को समान तृप्ती देता है । धर्मान्ध व्यक्तियों को तो यह अमृत तुल्य लगता है। .... हां तो दूसरी बार ब्रह्म ने गुल को तब देखा जव वह भाई की मौत का बदला लेने जा रहा था। चारों तरफ जलती दुकानें ... भागते लोग... जलते टायर... गोलियों की आवाजें। सब कुछ उसे बेहद रोमांचक लग रहा था। अब तक वह कई घर और दुकानें जला चुका था। उजाले दीपावली की याद दिला रहे थे। गोलियों की आवाज मानो छूटते पटाखे। जलते मांस और बारुद की गूंथी हुई गंध मानो हलवाई की दूकान से आती बयार। तभी गली के दूसरे छोर पर हाथ में पत्थर और होंठों पर ठहाका लिये गुल खड़ी दिखाई दी। शायद उसने भी बरबादी का जश्न मनाना सीख लिया था। गुल ने खींच कर ब्रह्म की तरफ पत्थर फेंका। उधर ब्रह्म ने भी सूतली में आग लगाई और बल्ब गुल की तरफ उछाल दिया। गली के मध्य दोनों टकराये और आग की दीवार खड़ी हो गई। कहीं दूर पुलिस की गाड़ी का सायरन सुनाई दिया। दोनों भाग लिये।

घर और दोस्तों में ब्रह्म बहुत ही सयाना व संकोची माना जाता था। साइकिल वर कॉलेज से सीधा घर आता, दिन भर पढ़ता रहता और शाम को छोटे भाई को साथ ले पड़ौस के दोस्तो के घर कैरम खेलता। पढ़ाई में भी वो सदैव अग्रिम पंक्ति मे ही गिना जाता था। दंगाइयों के हाथों मित्रवत भाई की हत्या के बाद तो उसकी दुनिया ही बदल गई थी। पिता तो थे ही नहीं और मां की आँखें पिता को नित्य तर्पण से धुंधला ही देख पाती। मां को यह आभास ही नहीं हुआ कि कब उसका अंतिम अवलम्ब अग्निपथ पर चल पड़ा। शहर में कई दिनों से कर्फ्यू था। वह दोस्तों के घर जाने का बहाना कर छत के रास्ते गली में उतर हैवान बन जाता।

एक सुबह खाना खाकर जैसे ही वही वह घर से जाने लगा। मां के कराहने की आवाज सुनाई दी। माथे पर हाथ धरा तो तप रहा था। थर्मामीटर लगा कर देखा। बुखार तेज था। एक तरफ नफरत के नशे का चस्का दूसरी तरफ मां की चिंता। कुछ पल की कशमकश के बाद आज उसने अपनी हैवानियत स्थगित रखी। नफरत पर प्रेम की विजय ने सिद्ध किया कि नफरत आंधी है, आती है और सब कुछ तबाह कर के चली जाती है। जबकि प्रेम तो वह सरस सलिल है जो सदैव बहती है, शाश्वत है, जीवनदायिनी है। कुछ देर मां के सिरहाने बैठ गीला गमछा माथे रख बुखार कम करने का प्रयत्न करता रहा। बुखार जब थोड़ा कम हुआ तो मां को डाक्टर के पास ले जाने का तय किया। बाहर के हालात ठीक नहीण होने पर भी वह मां को पड़ौस के डाक्टर के पास ले चला। अंदर डाक्टर जांच कर रहा था और बाहर आगजनी हो रही थी। धार्मिक उन्माद के नारे लग रहे थे। आज उसका ध्यान पूर्णतया मां की चिन्ता में ही लगा था। डाक्टर ने दवाई लिखी। मां को घर छोड़ा। उसे मालूम था कि सरकारी अस्पताल में मेडिकल स्टोर खुला होगा। अपने खुफिया रास्तों से वह अस्पताल की ओर बढ़ चला। स्टोर से दवा खरीदी और लौट गया। वह जल्दी में था। मां की चिंता सता रही थी। शीघ्र मां के पास पहुँच जाना चाहता था कि वही मस्त कर देने वाले वहशी नारे उसके कानों में पड़े। कदम एक क्षण को ठिठके, अंदर की नफरत ने अंगड़ाई ली। एक पल के लिये रुका। गहरी सांस खीच कर स्वयं पर नियंत्रण किया। हाथ में पकड़ी दवा को कस कर पकड़ा और दृढ़ कदमों से घर की और चला। जैसे ही वह अपने मोहल्ले मे दाखिल हुआ चीखने-चिल्लाने की आवाजें और बचाओ-बचाओ की पुकार सुनाई दी। वह झपट कर अपने घर की तरफ दौड़ पड़ा। उसने देखा घर आग से लपटों से घिरा पड़ा था। खिड़की में देखा तो दो हाथ पुकार को उठे हुए थे। ......माँ ....हाँ वह हाथ माँ ही के थे। वह माँ.. माँ.. चिल्लाता हुआ घर की और लपका कि एक गोली दनदनाती हुई आई और उसके कंधे में आग उतरती चली गई। सड़क पर ब्रह्म पछाड़ खाकर गिरा और ढेर हो गया।

इस घटना की मौन साक्षी गुल, वही एक कोने में सहमी सी दुबकी खड़ी थी ।

कई दिन बीत गये लोगों में और दंगे करने और सहने की क्षमता नहीण रही तो जिन्होंने पहले कहा था '' जाओ मेरे बच्चो, धर्म की रक्षा करो ... मजहब के लिये मर मिटो ... ईश्वर की रक्षा आज मानव के हाथ है'' । उन्होंने फरमान जारी किया .. ''रुक जाओ मेरे बच्चो, ... दंगाइयों का कोई मजहब नहीं होता..... तुम्हें भड़काने वाले तो शैतान की औलाद और इंसानियत के दुश्मन है ...'' और इस तरह शहर में शांति बहाल कर दी गई।

पिछले कई दिनों से ब्रह्म फटेहाल खुद से अंजान सड़कों पर घूम रहा था। उसकी स्मृति लुप्त हो चुकी थी। कहीं कोने में पड़ी जूठन खा लेता रात किसी दुकान के शटर से लिपटा पड़ा रहता। अब वह सभी रंजो-गम से निर्लिप्त था। भूत का साया नहीं, भविष्य को खौफ नहीं। खालिस आज में ही नहीं वरन् वर्तमान में जीता हुआ। धरती उसका घर थी और आसपास के सभी मौहल्लों के कचरापात्र उसके अपने सगे।

चैराहे पर थोड़ी भीड़ थी। वह भी कुछ खाना पाने की आस में वहां चला गया। दंगा पीड़ितों का पुनर्वास केम्प लगा था। एक बाबू बैठा समोसा खा रहा था। वह समोसे को बड़े अपनेपन से देखने लगा। बाबू ने देखा, चपरासी को ईशारा किया। चपरासी ने पत्थर उठाने का अभिनय कर, उसे वहा से भगा दिया। ब्रह्म निर्विकार पास की होटल के पिछवाड़े, जूठन तलाशने चला गया।

दूसरी तरफ गुल, आज तक सहमी हुई। एक बेटे के सामने मां का जलना, बेटे का लपकना, कंधे में गोली लगना, पछाड़ खा कर गिरना बेहोशी की हालत में माँ-माँ चिल्लाना, इस पूरे घटना क्रम ने गुल को झकझोर कर रख दिया था। वह भी बदहवास लावारिस गलियों में भटका करती। इस दुनिया में अब उसका भी कोई नहीं था। अपनी सुरक्षा के लिये हाथ में हमेशा एक पत्थर रखती। मारने का अभिनय करती पर मारती किसी को नहीं। पत्थर लेकर लपकती परन्तु पास आकर पुचकार कर, माथे हाथ फेर कर चली जाती। दिन भर जनअरण्य में देह जठर और मन ममता की क्षुधातृप्ति को भटकती रहती। ब्रह्म जिस होटल के पिछवाड़े खाना तलाश रहा था वह भी वहाँ पहुँच गई। दोनों एक दूसरे को देखते रहे। फिर गुल के होंठ फड़फड़ाए ....बाहें पसारी और रो पड़ी ....बेटा .... । ब्रह्म स्तब्ध, विचारशून्य....। महीनों बाद किसी रिश्ते से सम्बोधित हुआ था। पलके बंद किये नतजानू वही बैठ गया। अपने लुट चुके स्मृतिकोश से लड़ता रहा। धीरे-धीरे धुँध छटने लगी। सड़क किनारे तार-तार बुर्के में अपने बेटे की लाश का सर गोद में रख रोती एक छाया, पलक पटल पर उभर आई। फिर जलती खिड़की में उभरे दो हाथ नजर आये। उसे लगा गोद में लेटे बेटे का चेहरा उसका अपना है और गुल के दोनों हाथ जल रहे हैं। उसने बेटे की लाश में कुछ हलचल महसूस की । अचानक वह दौड़ पड़ा और ... माँ .... कहता हुआ गुल से लिपट गया । दोनों की आंखों में अश्रुधारा बह निकली । रक्त के सैलाब से उजड़ चुकी धरा पर अश्रुसिंचन से एक नये मजहब की कौंपल फूट पड़ी। चेतना का कबूतर आशातृण लिये रिश्तों के खंडहर पर उतर गया ।

कोण और किस्सों का विस्तार अनंत होता है उन्हें सीमित करने के लिये कहीं ना कही चाप कांटना ही पड़ता है। इस किस्से को भी यहा चाप काट कर पूरा किया जाता है। पर आइये एक नजर चाप से परे भी डाल देते हैं।

अब दोनों अक्सर शहर के किसी कौने में खाना तलाश करते मिल जाते। दोनों के पास जो भी खाने का होता मिल-बांट लेते। धीरे-धीरे दोनों को पता चला कि वह अकेले नहीं है। उन जैसे बहुत हैं। अलग-अलग मजहब से आये हैं। पर वे आपस में कभी नहीं लड़ते। ना इनमें धर्मान्धता है, ना मजहबी उन्माद। सबका, सब कुछ दंगों में जल गया या लूट लिया गया है । हर एक का कोई अपना या तो दंगाइयों के हाथों मारा गया है या पुलिस की गोली से हलाक हुआ है। ये सभी किसी संत की मानिंद है जिनकी चेतना मां अन्नपूर्णा को समर्पित है। भूख इनका मजहब है, कचरा पात्र मंदिर और जूठन आराध्य। यहां गुलमोहरबी मां है और ब्रह्मभट्ट बेटा। हर दंगे के बाद इस समुदाय के सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है। अब इस दंगों के को अमन के शहर होने में अधिक देर नहीं है।

--विनय के जोशी
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