बाहर अभी उजाला है। हल्का-हल्का उजाला जो अभी थोड़ी देर में अंधेरे की शक्ल लेना शुरू कर देगा। माँ रसोई में अब भी कुछ खटपट कर रही है जबकि उसे अच्छी तरह पता है कि दोनों सूटकेस और बैग पैक हो चुके हैं और अब कोई चीज़ रखने की जगह नहीं।
वह कुर्सी पर आराम की मुद्रा में बैठा है। सामने अभिजीत पलंग पर बैठा है। पापा दरवाज़े पर टहल रहे हैं और पता नहीं किस चीज़ का इंतज़ार कर रहे हैं। वह कभी बाहर की तरफ देखता है, कभी अभिजीत की तरफ और कभी किचेन की तरफ। सभी मानो किसी चीज़ का इंतज़ार कर रहे हों। घड़ी की सुइयों का एक जगह से दूसरी जगह जाकर एक निश्चित जगह पहुँच जाना भी कितनी उदास घटना है, और कितना थका देने वाला है यह इंतज़ार। पापा बाहर टहलते-टहलते ही उसे बीच-बीच में देख ले रहे हैं जैसे उन्हें यक़ीन ही न हो कि वह इसी घर में उसी हत्थे टूटी कुर्सी पर बैठा है। थोड़ी-थोड़ी देर पर अंदर आ जा रहे हैं।
''विक्रांत का पता और फोन नम्बर कहाँ रखा है?''
''डायरी में।'' वह जैकेट की जेब थपथपाता है।
''कहीं दूसरी जगह भी लिख लो, अगर ये डायरी खो गयी तो.........?'' थोड़ी देर खड़े रहते हैं फिर बाहर जा कर टहलने लगते हैं। मां एक डब्बे में कुछ लेकर आती है।
''इसे बैग की साइड वाली पॉकेट में जगह बना कर रख लो।''
''क्या है ये..........?'' वह डब्बे को बिना थामे पूछता है।
''रास्ते में खाने के लिए मठरियाँ....।''
''मां, मैंने बताया था न कि प्लेन में खाना मिलता है।'' वह झुंझला जाता है।
''............पर ये खाना थोड़े ही है, थोड़ी-थोड़ी देर पर निकाल कर खाते रहना।'' मां थोड़ी सहम जाती है।
''मां तुम भी.........।''
अभिजीत उठकर मां के हाथ से डब्बा ले लेता है।
''लाओ आंटी, मैं रख देता हूँ। दो-चार अपनी जेब में और बाकी बैग में......।''
'' हाँ बेटा, ले रख दे।''
पापा फिर अंदर आते हैं।
''बेटा, वहाँ जाकर अपना हिसाब-किताब देख कर मुझे फोन करना। और भी पैसों की ज़रूरत होगी तो बताना। पढ़ाई में ध्यान लगाना, पैसों की कोई फ़िकर मत करना......।''
उसे पता है पापा की आदत है ये, जिस चीज़ की सबसे ज्यादा कमी होती है उसे ही सबसे ज्यादा उपलब्ध दिखाने की कोशिश करते हैं।
अभिजीत चुपचाप बैठा मठरियाँ खा रहा है। बीच-बीच में उसे देख ले रहा है और मुस्करा दे रहा है। ये इतना चुप तो कभी नहीं रहता। मठरियाँ खाने में ऐसे जुटा है जैसे मठरियां खाना दुनिया का सबसे ज़रूरी काम हो और उसका पढ़ाई करने ऑस्ट्रेलिया जाना एक मामूली बात हो।
अभी तीन घंटे बाद वह फ्लाइट में होगा। सभी से दूर..........माँ-पापा से, दोस्तों से, इस मुहल्ले से, इस शहर से, इस देश से...........।
थोड़ी देर में अनुज भी आ जाता है।
''सब तैयार है न ?'' वह अभिजीत से पूछता है।
''हाँ, हाँ सब तैयार है। बस........निकलते हैं।'' अभिजीत इत्मीनान से एक मठरी निकाल कर अनुज की ओर बढ़ा देता है।
रोज़ का दिन होता तो अनुज इतनी शांति से एक मठरी लेकर खाने लगता ? अभिजीत के हाथ से दूसरी भी छीन लेता और अभिजीत उसे छीनने के लिए उसकी टांगों में हाथ डालकर गिरा देता और मठरियां छीनने लगता। माँ हमेशा की तरह दोनों की तरफ देख कर कहती, ''अरे लड़ो मत बेटा। अभी और भी मठरियाँ बची हुयी हैं।''
मगर अनुज एक मठरी आराम से खा रहा है। माँ सोफे पर बैठकर एकटक उसकी ओर देख रही है। वह मुस्करा देता है।
''क्या है माँ ? ऐसे क्यों देख रही हो ?''
''अं हां, अपने खाने-पीने का बहुत ख़याल रखना। रात को दूध ज़रूर पीना और.....और फोन करते रहना। पढ़ाई पर ध्यान देना और चिट्ठी ज़रूर डालते रहना।''
''अरे आंटी, अब कौन चिट्ठी-विट्ठी लिखता है। यह हर दो-तीन दिन पर ई मेल करता रहेगा और हम आकर इसका हाल-चाल आपको बता दिया करेंगे।'' अनुज कहता है।
''जुग-जुग जीओ बेटा।''
वह अनुज की ओर प्रश्नवाचक निगाहों से देखता है। अनुज भी कुछ बताने के लिए उसकी तरफ देख रहा है पर माँ की उपस्थिति से दोनों ख़ामोश हैं। वह अभिजीत की ओर देखता है। अभिजीत उसकी आंखें का इशारा समझा जाता है। वह उठकर मां के पास चला जाता है।
''आंटी वह नमकीन वाली गुझिया दो न एक।''
'' जा बेटा, उस सफ़ेद डब्बे में है, निकाल ले।'' माँ वहाँ से बिल्कुल नही उठना चाहती।
'' नहीं आंटी प्लीज़ आप निकाल लाओ न।''
''अच्छा रुको लाती हूँ।'' माँ धीरे से उठ कर रसोई की तरफ चली जाती है।
अनुज लपक कर उसके पास पहुँचता है।
''क्या हुआ ?'' वह बेचैन दिख रहा है।
''वह सीधा एअरपोर्ट आयेगी।'' अनुज बताता है।
''यार यहाँ आ जाती तो मैं नीचे जाकर मिल आता। एअरपोर्ट पर तो पापा भी होंगे। क्या बोलकर परिचय कराऊँगा उसका.......?''
''बोल देना दोस्त है।'' अनुज राय देता है।
''हाँ पर.....फेयरवेल किस नहीं ले पाएगा पापा के सामने।'' अभिजीत मुस्कराता हुआ कहता है।
''अरे यार वो बात नही...........अभी तक माँ-पापा को कुछ नहीं बनाया तो अब जाते वक्त.......। बाद में बताऊँगा, सीधे फ़ाइनल डिसीजन के समय..............।'' वह कुछ सोच में पड़ जाता है।
''सुन तू पापा को एअरपोर्ट चलने के लिए मना कर दे। कुछ भी बोल कर समझा ले। बोल दे कि दो लोग तो जा ही रहे हैं।'' अभिजीत आइडिया देता है।
''हाँ शायद यही ठीक रहेगा।'' वह सोचते हुए बुदबुदाता है।
माँ गुझिया रख कर पापा के पास चली गयी है। दोनों आपस में बातें कर रहे हैं। या अब अकेले सिर्फ़ एक दूसरे के साथ रहने का अभ्यास..........?''
पापा फिर अंदर आते हैं।
'' ठंड से बचकर रहना। वहाँ ठंड ज्यादा पड़ती है। हमेशा मफ़लर लगा कर रहना। ठंड कानों पर ही सबसे पहले आक्रमण करती है। कान हमेशा ढके होने चाहिए। ये नही कि फ़ैशन में बाल न बिगड़ें, इसलिए मफ़लर ही न लगाओ। स्वविवेक से काम लेना। वहां कोई देखने नहीं आयेगा। वह तुम्हारा घर नहीं मेलबर्न है।''
पापा पिछले कुछ दिनों से हर बात में घुमा-फिरा कर मेलबर्न का ज़िक्र ज़रूर ले आते हैं जैसे पूरी तस्दीक कर लेना चाहते हों कि वह वाकई इतनी दूर जा रहा है।
पापा बाहर जा कर फिर टहलने लगते हैं। माँ बाहर कुर्सी पर बैठी है।
''जी.............।'' इतनी बातों के जवाब में वह सिर्फ़ एक शब्द बोलता है जो बाहर पसर रहे अंधेरे में गुम हो जाता है।
''आज रोज़ इतनी ठंड नहीं है।'' अनुज कहता है।
''हां बल्कि मुझे तो गर्मी लग रही है।'' वह कहता है।
''वह तो लगेगी ही, तूने स्वेटर और जैकेट दोनों पहन रखी है। मुझे देख...।'' अभिजीत उसे अपना हाफ़ स्वेटर दिखाता है।
''अरे यार, पापा ने ज़बरदस्ती.........।''
''तो पापा के सपूत, अब तो उतार दे। पापा बाहर हैं। उतार कर जैकेट की चेन बंद कर ले। उन्हें क्या पता चलेगा।'' अभिजीत राय देता है।
वह जैकेट उतार कर स्वेटर उतार देता है। फिर जैकेट पहन कर उसकी चेन बंद कर देता है।
''मैं सोच रहा था, ये स्वेटर न ले जाऊँ।'' वह स्वेटर को तह करते हुये कहता है।
'' सही सोच रहा है। इस पुराने स्वेटर को ले जाकर क्या करेगा ? तीन-तीन अच्छे स्वेटर तो हैं तेरे पास........।'' अनुज समझाता है।
''मगर पापा देख लेंगे तो उन्हें बुरा लगेगा। वह ख़ुद यह स्वेटर मेरे लिये नेपाल से लाये थे।'' वह हिचकिचाता है।
''अभी नहीं देखेंगे ना ? बाद में देखेंगे तो सोचेंगे गलती से छूट गया।'' अनुज स्वेटर तह करके तकिये के नीचे रख देता है।
फिर तीनों अचानक चुप हो जाते हैं। अनुज व अभिजीत दोनों उसकी तरफ देख कर मुस्कराते हैं।
''कुछ कह रही थी ?'' वह भी मुस्कराता है।
''नहीं, कुछ ख़ास नहीं। बस यही कि पहुँचते ही अपना पोस्टल एड्रेस उसे मेल कर देना। जो स्वेटर तुम्हारे लिये बुन रही है, बस पूरा होने ही वाला है, उसे कूरियर करेगी। कह रही थी बहुत सारी बातें हैं जो तुमसे एअरपोर्ट पर करेगी। मैंने कहा मुझे बता दे, मैं तुम्हें बता दूंगा तो नाराज़ होने लगी.........।'' अनुज कुटिल मुस्कान मुस्कराता है।
''साले, तुझसे क्यों बतायेगी ? वो बातें तू सीमा से क्यों नही करता ?'' वह भी मुस्कराता है।
''यार, वह ना तो मुझे घास डालती है न मेरी डाली घास खाती है। उससे क्या बातें करूँ, मुझ तो तेरी कविता ही पसंद है।'' अनुज ढीठता से हँसता हुआ कहता है।
वह फिर मुस्कराता है। वह जानता है ओर कोई दिन रहता तो सीमा का नाम सुनते ही अनुज दिल पर हाथ रखकर सारी बातें धीरे-धीरे नाटकीय अंदाज़ में कराहते हुये कहता। वह भी उसकी ज़बान से कविता का नाम सुनते ही उस पर लातें चलाने लगता। पर आज की बात दूसरी है। आज उनके पास वक्त नहीं है। आधे घंटे के भीतर वे एअरपोर्ट के लिये निकल लेंगे। उससे पहले यारों के बीच होने वाली बेवकूफ़ियों को रिवाइंड करना अच्छा लग रहा है।
पापा मां के साथ फिर अंदर आते हैं।
''अब निकलते हैं बेटा, कहीं पहुँचने में देर न हो जाय।''
''अरे अंकल, अभी तो टाइम है।'' अनुज कहता है।
''अरे भई ट्रैफ़िक जैम का कोई भरोसा है क्या। कभी भी लेट करा सकता है।''
मां भीगी आंखों से उसे देखती है। ''तेरे जाने के बाद घर एकदम सूना हो जायेगा।'' लगता है माँ रो देगी।
''कम ऑन आंटी, हम सूना होने देंगे तब ना..........।'' अभिजीत माँ के कंधे पर हाथ रखता है। माँ उसका गाल थपथपा देती है।
''चलो बेटा चलो, अब निकलते हैं.................कहीं देर न हो जाय।'' पापा पास आकर खड़े हो जाते हैं। उसे पापा पर इसी बात से गुस्सा आता है। जिस बात को एक बार मुँह से निकाल देते हैं उसके पीछे ही पड़ जाते हैं।
''चलो बेटा, आओ अनुज.............।'' उसके सोचने भर में पापा एक बार और अपनी बात दोहरा देते हैं और एक बैग उठाने का उपक्रम करते हैं।
''अरे अंकल, आप कहाँ परेशान होंगे ? हम हैं ना..........। आप आराम कीजिये।'' अनुज यह कहता हुआ बैग उठा लेता है। अभिजीत दोनों सूटकेस उठा लेता है।
''अरे नहीं बेटा, मैं भी चलता हूं।'' पापा परेशान दिखने लगे हैं।
''छोड़िये अंकल, डॉक्टर ने वैसे भी आपको ज्यादा दौड़ने-धूपने से मना किया है। आप यहीं रहिये । हम हैं ना.........।'' कहता हुआ अभिजीत बाहर निकल जाता है। पीछे-पीछे अनुज भी।
''डॉक्टर ने दौड़ने को मना किया है भई। मुझे दौड़ते हुये थोड़े ही चलना है।........चलता हूँ मैं भी...........।'' पापा उसके कंधे पर हाथ रखते हुये एक उदास हँसी हवसते हैं जो इस उदास शाम को और उदास कर जाती है।
''रहने दीजिये पापा, आप बेकार परेशान होंगे।'' वह पापा के पैर छूता है, फिर माँ के।
'' बेटा, माता के पैर छू लो।'' माँ दुर्गा के शीशे में मढ़ायी गयी तस्वीर की ओर इशारा करती है।
वह आगे बढ़ कर दुर्गा की तस्वीर को प्रणाम करता है जिसके शीशे में पापा की उदास खड़ी परछाई दिखायी देती है। वह बाहर आ जाता है। पापा उम्मीद भरी आंखों से उसे देखते रहते हैं। माँ उसे दही खिलाती है। वह जल्दी से दही खाकर निकल जाता है।
तीनों घर से निकल कर सड़क पर आ जाते हैं। वह ख़ुद को ऐसे मक़ाम पर पा रहा है जहां एक वाज़िब ख़ुशी का एहसास दिल में इसलिये नहीं उमड़ पा रहा है क्योकि कुछ छूट जाने का गम उस पर हावी होता जा रहा है। अपने दोस्त, अपनी जगह, अपना माहौल.........। एक नयी दुनिया में जाने की ख़ुशी पता नहीं क्यों इतनी शिद्दत से महसूस नहीं हो पा रही है।
क़रीब सौ मीटर चलने के बाद अनुज सिगरेट जलाकर दोनों को एक-एक थमा देता है। दोनों सिगरेट फूँकते हुये ऑटो स्टैंड की तरफ जाने लगते हैं।
'' आज सुबह मनु के घर पुलिस की रेड़ पड़ी थी।'' अनुज सिगरेट का धुँआ छोड़ता हुआ बताता है।
'' हां, उसके डैडी बिजनेस की आड़ में कुछ गलत धंधा करते थे।'' अभिजीत कहता है।
उसका मन सुबह से भारी हो रहा है। वह अपनी बीती ज़िंदगी और आने वाली ज़िंदगी के बारे में सोच रहा है। इन दोनों की बातें सुनकर उसका मन डूबता हुआ सा लग रहा है। वे भी तो उसके बिना अकेले हो जाएंगे। वह कितना मिस करेगा इनको..........।
''अच्छा सुन, वहां की लड़कियां बड़ी फ़्रैंक होती है। दो-चार पट जायं तो बताना, हम भी आय ई एल टी एस ट्राय कर लेंगे। क्यों अभि ?'' अनुज खी-खी करके हंसने लगता है।
वह भी मुस्करा देता है। अभिजीत एक बार उसकी तरफ़ देख भर लेता है। वे कितनी सफ़ाई से दिल दुखाने वाली बातें नहीं करना चाहते।
''मैं वहां तुम लोगों को बहुत मिस करूँगा.........।'' वह भरी-भरी आवाज़ में कहता है। अभिजीत उसकी हथेली अपनी हथेली में पकड़ कर दबा देता है।
''अरे कभी-कभी उसे भी मिस कर लेना जो अपना प्यार स्वेटर की शक्ल में भेजने वाली है........................।'' अनुज अपनी आदत के अनुसार भावुक होने के बावजूद बात को हंसी में उड़ा देता है।
'' अंकल आ रहे हैं। पीछे पलटने से पहले सिगरेट फेंक दो।'' अभिजीत धीरे से फुसफुसाता है।
वह सिगरेट फेंक कर पलटता है। पापा लगभग दौड़ते हुये आ रहे हैं। वह आगे बढ़कर सड़क पार करता है और उनके पास पहुंचता है।
'' क्या बात है पापा ? आपके लिये दौड़ना नुकसानदायक है, आप जानते हैं फिर भी.......?'' वह हल्का गुस्सा दिखाता है। उसे पहली बार याद आता है कि उसके जाने के बाद पापा का उतावलापन नियंत्रित करने वाला कोई नहीं रहेगा और वह उतावली में अपना नुकसान करते रहेंगे।
'' अरे तुम ये स्वेटर भूल आये थे तकिये के नीचे.............। तुम्हारी मम्मी ने कहा कि.तुम्हें दे आऊँ......इसलिये थोड़ा दौड़ना पड़ा।...........लो बैग में रख लो.........।'' पापा अटकती सांसों के बीच बोलते हैं और उसे देखते रहते हैं।
उसे अचानक पापा के ऊपर तरस आने लगता है, फिर अपने ऊपर। फिर पापा के ऊपर प्यार आने लगता है और अपने ऊपर गुस्सा। स्थिर, गंभीर आंखों और लंबी सांसों के बीच पापा ने कितनी चिंतायें छिपा रखी हैं। उसका मन करता है कि अपने दिल में पापा के लिये छिपा सारा प्यार ज़ाहिर कर दे। क्या पता फिर पापा भी जाते समय उससे पैर छुआने की जगह उसे गले लगा लें।
वह डूबती आंखों और कांपते हाथों से स्वेटर हाथ में लिये थोड़ी देर खड़ा रहता है और पापा को देखता रहता है।
'' सारी ज़रूरी चीज़ें रख ली हैं न ? ये याद रखना कि हमेशा अपनी मेहनत पर विश्वास रखना। सही रास्ता कठिन हो या लंबा, हमेशा उसे ही चुनना। शरीर और पढ़ाई दोनों पर ध्यान देना। पैसों की चिन्ता मत करना। चलो, अब जाओ, देखो अनुज ने ऑटो तय कर लिया है।..............बुला रहा है तुम्हें।'' पापा सामान्य दिखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
'' जी...........।'' वह भरी आंखों के साथ पलटता है। दो-तीन क़दम चलने पर पापा की आवाज़ सुनायी देती है।
'' कहो तो मैं भी चल ही चलूँ.........। वैसे भी घर पर बैठा ही रहूँगा..........।'' पापा की धीमी आवाज़ जैसे कहूँ और न कहूँ के संशय के बीच से निकल कर आ रही है। ज़माने भर का दर्द और निवेदन समेटे अपनी आवाज़ को उन्होंने इस तरह ज़ाहिर करना चाहा है जैसे उन्होंने बहुत सामान्य और छोटी सी बात कही है और इसके न माने जाने पर भी उन्हें कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ेगा।
एक टिप्पणी भेजें