मेरे इर्द -गिर्द घूमता हैं वो एक साया है...
जो हर दम मेरे साथ रहना चाहता है...
जहाँ मैं जाती हूँ...वो पीछे-पीछे आता है...
क्यूंकि वो साया मेरी ही परछाई है...
जो कभी मुझसे जुदा होना नहीं चाहती...
लेकिन हर दम रूप बदलती है जैसे...
सुबहा दुगनी...शाम चौगनी...दोपहर में सिकुड़ी हुयी...
और अंधेरे में गुम होती हुई... मेरे अन्दर सिमट जाती है...
और कहती हैं...बस कुछ देर का अँधेरा हैं...फिर रौशनी होगी...
और हम साथ होंगे...मैं मुस्कुराती हूँ...और कहती है...
ये दिलासा मुझे मत दो...मैं अंधेरों में भी जीना जानती हूँ...
मुझे तुम्हारी ज़रुरत नहीं...तुम्हे मेरी ज़रुरत हैं...तुम कल फिर लौट के आओगे...
क्यूंकि मेरी वहज से तुम्हारा वजूद है...और यही सच है...यही सच है...यह कविता हमारे मित्र अचिन्त्य चन्द्र मिश्र जी ने दी थी...
धन्यवाद अचिन्त्य...
Sundar rachnase ru-b-ru karaya aapne !
Sundar rachna hai!
अतिसुंदर रचना